20 January 2013
19 February 2008
बाल कविताएँ
छीनकर खिलौनो को बाँट दिये गम ।
बचपन से दूर बहुत दूर हुए हम।।
अच्छी तरह से अभी पढ़ना न आया
कपड़ों को अपने बदलना न आया
लाद दिए बस्ते हैं भारी-भरकम।
बचपन से दूर बहुत दूर हुए हम।।
अँग्रेजी शब्दों का पढ़ना-पढ़ाना
घर आके दिया हुआ काम निबटाना
होमवर्क करने में फूल जाये दम।
बचपन से दूर बहुत दूर हुए हम।।
देकर के थपकी न माँ मुझे सुलाती
दादी है अब नहीं कहानियाँ सुनाती
बिलख रही कैद बनी, जीवन सरगम।
बचपन से दूर बहुत दूर हुए हम।।
इतने कठिन विषय कि छूटे पसीना
रात-दिन किताबों को घोट-घोट पीना
उस पर भी नम्बर आते हैं बहुत कम।
बचपन से दूर बहुत दूर हुए हम।।
०००
बाल कविता
गिलहरी
गिलहरी दिन भर आती-जाती
फटे-पुराने कपड़े लत्ते
धागे और ताश के पत्ते
सुतली, कागज, रुई, मोंमियाँ
अगड़म-बगड़म लाती।
गिलहरी दिनभर आती-जाती।।
ठीक रसोईघर के पीछे
शीशे की खिड़की के नीचे
`एस्किमो' सा गोल-गोल घर
चुन-चुन खूब बनाती।
गिलहरी दिनभर आती-जाती।।
दो बच्चे हैं छोटे-छोटे
ठीक अँगूठे जिनते मोटे
बड़े प्यार से उन दोनों को
अपना दूध पिलाती।
गिलहरी दिनभर आती-जाती।।
खिड़की पर जब कौआ आता
बच्चे खाने को ललचाता
पूँछ उठाकर चिक्-चिक्-चिक्-चिक्
करके उसे डराती।
गिलहरी दिनभर आती-जाती।।
भोली-भाली बहुत लजीली
छोटी-सी प्यारी शरमीली
देर तलक शीशे से चिपकी
बच्चों से बतलाती।
गिलहरी दिनभर आती-जाती।।
-०००-
मेरा भी तो मन करता है
मेरा भी तो मन करता है
मैं भी पढ़ने जाऊँ
अच्छे कपड़े पहन
पीठ पर बस्ता भी लटकाऊँ
क्यों अम्मा औरों के घर
झाडू-पोंछा करती है
बर्तन मलती, कपड़े धोती
पानी भी भरती है
अम्मा कहती रोज
`बीनकर कूड़ा-कचरा लाओ'
लेकिन मेरा मन कहता है
`अम्मा मुझे पढाओ'
कल्लन कल बोला-
बच्चू! मत देखो ऐसे सपने
दूर बहुत है चाँद
हाथ हैं छोटे-छोटे अपने
लेकिन मैंने सुना
हमारे लिए बहुत कुछ आता
हमें नहीं मिलता
रस्ते में कोई चट कर जाता
डौली कहती है
बच्चों की बहुत किताबें छपती
सजी- धजी दूकानों में
शीशे के भीतर रहतीं
मिल पातीं यदि हमें किताबें
सुन्दर चित्रों वाली
फिर तो अपनी भी यूँ ही
होती कुछ बात निराली।।
-०००-
चिड़िया और बच्चे
-डॉ० जगदीश व्योम
चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ चूँ
भूख लगी मैं क्या खाऊँ
बरस रहा बाहर पानी
बादल करता मनमानी
निकलूँगी तो भीगूँगी
नाक बजेगी सूँ सूँ सूँ
चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ .......
माँ बादल कैसा होता ?
क्या काजल जैसा होता
पानी कैसे ले जाता है ?
फिर इसको बरसाता क्यूँ ?
चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ .......
मुझको उड़ना सिखला दो
बाहर क्या है दिखला दो
तुम घर में बैठा करना
उड़ूँ रात-दिन फर्रकफूँ
चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ चूँ .......
बाहर धरती बहुत बड़ी
घूम रही है चाक चढ़ी
पंख निकलने दे पहले
फिर उड़ लेना जी भर तूँ
चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ चूँ .......
उड़ना तुझे सिखाऊँगी
बाहर खूब घुमाऊँगी
रात हो गई लोरी गा दूँ
सो जा, बोल रही म्याऊँ
चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ चूँ
भूख लगी मैं क्या खाऊँ ?
--००--
डॉ० जगदीश व्योम
03 October 2006
बचपन से दूर
छीनकर खिलौनो को बाँट दिये गम ।
बचपन से दूर बहुत दूर हुए हम।।
अच्छी तरह से अभी पढ़ना न आया
कपड़ों को अपने बदलना न आया
लाद दिए बस्ते हैं भारी-भरकम।
बचपन से दूर बहुत दूर हुए हम।।
अँग्रेजी शब्दों का पढ़ना-पढ़ाना
घर आके दिया हुआ काम निबटाना
होमवर्क करने में फूल जाये दम।
बचपन से दूर बहुत दूर हुए हम।।
देकर के थपकी न माँ मुझे सुलाती
दादी है अब नहीं कहानियाँ सुनाती
बिलख रही कैद बनी, जीवन सरगम।
बचपन से दूर बहुत दूर हुए हम।।
इतने कठिन विषय कि छूटे पसीना
रात-दिन किताबों को घोट-घोट पीना
उस पर भी नम्बर आते हैं बहुत कम।
बचपन से दूर बहुत दूर हुए हम।।
०००
31 July 2005
22 April 2005
बालगीत
TITITITITITITITIT
चन्दा मामा
TITITITITITITITIT
चन्दा मामा दूर के
छिप-छिप कर खाते हैं हमसे
लड्डू मोती चूर के
लम्बी-मोटी मूँछें ऍंठे
सोने की कुर्सी पर बैठे
धूल-धूसरित लगते उनको
हम बच्चे मज़दूर के
चन्दा मामा दूर के।
बातें करते लम्बी-चौड़ी
कभी न देते फूटी कौड़ी
डाँट पिलाते रहते अक्सर
हमको बिना कसूर के
चन्दा मामा दूर के।
मोटा पेट सेठ का बाना
खा जाते हम सबका खाना
फुटपाथों पर हमें सुलाकर
तकते रहते घूर के
चन्दा मामा दूर के।
***
-डॉ० अश्वघोष
SPSKSKSKSKSKSKSKSKS
इब्नबतूता का जूता
SPSKSKSKSKSKSKSKSKS
इब्नबतूता
पहन के जूता
निकल पड़े तूफान में
थोड़ी हवा नाक में घुस गई
थोड़ी घुस गई कान में
कभी नाक को
कभी कान को
मलते इब्नबतूता
इसी बीच में
निकल पड़ा उनके पैरों का जूता
उड़ते उड़ते उनका जूता
पहुंच गया जापान में
इब्नबतूता खड़े रह गये
मोची की दूकान में
-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
PAPAPAPAPAPAPAPAP
बालगीत
SPSPSPSPSPS
हाथी
SPSPSPSPSPS
हल्लम हल्लम हौदा
हाथी चल्लम चल्लम
हम बैठे हाथी पर
हाथी हल्लम हल्लम
लम्बीं लम्बीं सूंड़
फटा फट फट्टर फट्टर
लम्बे लम्बे दांत
खटा खट खट्टर खट्टर
भारी भारी सूंड़
मटकता झम्मम झम्मम
पर्वत जैसी देह
थुलथुली थल्लम थल्लम
हल्लर हल्लर देह
हिले जब हाथी चल्लम
खम्भे जैसे पाँव
धमा धम धम्मम धम्मम
हाथी जैसी नहीं
सवारी अग्गड़ बग्गड़
पीलवान पुच्छन
बैठा है बांधे पग्गड़
बैठे बच्चे बीस
सभी हम डग्गम मग्गम
-डॉ० श्री प्रसाद
बिल्ली
SPSPSPSPSPSPSPSPS
भूरी बिल्ली
SJKJSKJSKJ
भूरी बिल्ली चली खेलने
चूहों के संग गिल्ली
उठा पूँछ आउट का सिगनल
टॉमी ने दे डाला
खिसियानी सी बिल्ली सोचे
बदलूँ फिर से पाला
आउट नहीं मानती खुद को
बिल्ली बड़ी चिवल्ली
फिर से चलो खेले लो मौसी
बात बड़ी है छोटी
लेकिन चूहे समझ गए थे
इसकी नीयत खोटी
अगले ही पल आउट करके
चूहे सब हरषाए
लेकिन नहीं मानती बिल्ली
कौन इसे समझाए
अपनी नादानी से देखो
उड़वाती है खिल्ली
खेल भावना प्यार मौहब्बत
ये सब बहुत जरूरी
इनके बिना खेल में अक्सर
बढ़ जाती है दूरी
इसीलिए भूरी बिल्ली को
टॉमी ने समझाया
नहीं मानने पर गुस्सा हो
पंजा भी दिखलाया
अगर चपत जो मारा तुझको
निकल जाएगी किल्ली
खेल भावना बिना खेल में
होती है नादानी
सबकी बातें सुन बिल्ली ने
अपनी गलती मानी
मुझको माफी दे दो तुम सब
मैं हूँ बड़ी रबल्ली
***
SOSOSOSOSOSOSOSOSOSO
बालगीत
कंतक थैयां
SPSPSPSPSPSPSPSP
घुनूँ मनइयाँ
चंदा भागा पइयां पइयां
यह चन्दा हलवाहा है
नीले नीले खेत में
बिल्कुल सेंत मेंत में
रत्नों भरे खेत में
किधर भागता लइयां पइयां
कंतक थैयां घुनूं मनैयां........!!
मिट्टी के महलों के राजा
ताली तेरी बढ़िया बाजा
छोटा छोटा छोकरा
सिर पर रखे टोकरा
राम बनाये डोकरा
बने डोकरा करूँ बलैयां
कंतक थैयां घुनूं मनैयां......!!
***
हिलती डुलती पूँछ
खाता दाना घास
मेहनत उसका काम
काठी कसी लगाम
नौसिखिया असवार
बैठे सीना तान
सरपट घोड़ा चला
18 April 2005
बादल
बादल प्यारे बादल प्यारे
छाये नभ में हो कजरारे
कभी लाल पीले हो जाते
सारे नभ में दौड़ लगाते
काला भूरा रूप तुम्हारा
सबके मन को लगता प्यारा
एक जगह पर कभी न रुकते
करते काम कभी ना थकते
जब सूरज गरमी फैलाता
सबको है पीड़ा पहुँचाता
ऊपर से उसको ढक लेते
परोपकार की शिक्षा देते।
***
सूरज
SPSPSPSPSPSPSPSPS
सूरज जी! तुम इतनी जल्दी क्यों आ जाते हो
SPSPSPSPSPSPSPSPS
सूरज जी !
तुम इतनी जल्दी क्यों आ जाते हो ?
लगता तुमको नींद न आती
और न कोई काम तुम्हें
ज़रा नहीं भाता क्या मेरा
बिस्तर पर आराम तुम्हें
ख़ुद तो जल्दी उठते ही हो‚
मुझे उठाते हो !
सूरज जी ........!!
कब सोते हो‚ कब उठ जाते
कहाँ नहाते-धोते हो ?
तुम तैयार बताओ हमको
कैसे झटपट होते हो ?
लाते नहीं टिफ़िन‚
क्या खाना खा कर आते हो ?
सूरज जी ........!!
रविवार आफ़िस बन्द रहता
मंगल को बाज़ार भी
कभी-कभी छुट्टी कर लेता
पापा का अख़बार भी
ये क्या बात‚
तुम्हीं बस छुट्टी नहीं मनाते हो !
सूरज जी ........!!
-कृष्ण शलभ
SPSPSPSPSPSPSP